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Yugandhar Book Pdf Hindi Download




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सिर्फ पढ़ने के लिये
यदि सन्ध्योपासना किए बिना दिन बीत जाये तो प्रत्येक समय के लिए क्रमशः प्रायश्चित करना चाहिए। यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्याकाल के लिए नित्य नियम के अतिरिक्त सौ गायत्री मंत्र का अधिक जप करे। यदि नित्य कर्म के लुप्त हुए दस दिन से अधिक बीत जाय तो उसके लिए प्रायश्चित रूप में एक लाख गायत्री का जप करना चाहिए।
यदि एक मास तक नित्य कर्म छूट जाय तो पुनः अपना उपनयन संस्कार कराये। अर्थ सिद्ध के लिए ईश, कार्तिकेय, ब्रह्मा, गौरी, विष्णु, यमका और चन्द्रमा तथा ऐसे ही अन्य देवताओ का भी शुद्ध जल से तर्पण करे। फिर तर्पण कर्म को बाह्यार्पण करके शुद्ध आचमन करे।
तीर्थ के दक्षिण प्रशस्त मठ में, देवालय में, मंत्रालय में, घर में अथवा अन्य किसी नियत स्थान में आसन पर स्थिरता पूर्वक बैठकर विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि को स्थिर करे और सम्पूर्ण देवताओ को नमस्कार करके पहले प्रणव का जप करने के पश्चात गायत्री मंत्र की आवृत्ति करे।
प्रणव के अ उ और म इन तीनो अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है। इस बात को जानकर ॐ का जप करना चाहिए। जपकाल में यह भावना करनी चाहिए कि हम तीनो लोको की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, संहार करने वाले रूद्र की और पालन करने वाले विष्णु तथा जो स्वयं प्रकाशित चिन्मय है।
उपासना करते है। यह ब्रह्म स्वरु ओंकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियो की वृत्तियों को मन की वृत्तियों को तथा बुद्धि वृत्तियों को हमेशा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करे। प्रणव के इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा चिंतन करता हुआ जो इसका जप करता है वह निश्चय ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
अथवा अर्थानुसंधान के बिना भी प्रणव नित्य जप करना चाहिए। इससे ब्राह्मणत्त्व की पूर्ति होती है। ब्राह्मणत्त्व की पूर्ति के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातःकाल एक सहस्र गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। मध्यान्हकाल में सौ बार और सायंकाल में अट्ठाइस बार जप की विधि है।
अन्य वर्णो के लोगो को अर्थात क्षत्रिय और वैश्य को तीनो संध्याओं के समय यथासाध्य गायत्री जप करना चाहिए। शरीर के अंदर मूलाधार, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, अनाहत, सहस्रार और आज्ञा ये छः चक्र है। इनमे मूलाधार से लेकर सहस्रार तक छहो स्थानों में क्रमशः विद्येश्वर, विष्णु, जीवात्मा, ईश और परमेश्वर स्थित है।
इन सबमे ब्रह्म बुद्धि करके इनकी एकता का निश्चय करे और वह ब्रह्म मैं हूँ ऐसी भावनापूर्वक प्रत्येक श्वास के साथ सोअहं का जप करे। उन्ही विद्येश्वर आदि की ब्रह्मरंध्र आदि में तथा इस शरीर से बाहर की भावना करे। प्रकृति के विकारभूत महत्तत्त्व से लेकर पंचभूत पर्यन्त तत्वों से बना हुआ जो शरीर है।
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