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Ved Prakash Sharma Hindi Novel Pdf













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Ved Prakash Sharma Novel Online
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सिर्फ पढ़ने के लिए दिव्य ज्ञान Ved Prakash Sharma Hindi Novel Pdf
यज्ञ से मुक्ति संभव – श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है, हे गांडीवधारी – यज्ञ विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेद सम्मत है और यह सभी प्रकार के कर्मो से उत्पन्न है। इन्हे इस रूप से जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – जैसा कि पूर्व में बताया गया है वेदो में कर्ता भेद के अनुसार विभिन्न प्रकार के यज्ञो का उल्लेख है, चूंकि मनुष्य देहात्म बुद्धि में आसक्त है अतः इन यज्ञो की व्यवस्था इस प्रकार की गई है कि मनुष्य उन्हें अपने शरीर, मन अथवा बुद्धि के अनुसार संपन्न कर सकने में समर्थ हो सके। किन्तु देह से मुक्त होने के लिए ही इन सबका विधान है इसी की पुष्टि भगवान ने यहां पर अपने मुखारबिंद से किया है।
33- ज्ञान यज्ञ की श्रेष्ठता – श्री कृष्ण कहते है – हे परंतप ! द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ होता है। हे पार्थ ! अंततोगत्वा सारे यज्ञ कर्मो का अवसान दिव्यज्ञान में ही सम्भव होता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – भौतिक कष्टों से छुटकारा पाकर अंत में परमेश्वर की दिव्य सेवा कर सके और जीव को पूर्णतया ज्ञान हो सके यही समस्त यज्ञो का प्रयोजन है। तो भी इन सारे यज्ञो की विविध क्रियाओ में रहस्य भरा हुआ है और मनुष्य को यह रहस्य जान लेना चाहिए।
यथार्थ ज्ञान का अंत कृष्ण भावनामृत में होता है जो दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है। ज्ञान की उन्नति के बिना यज्ञ मात्र भौतिक कर्म में प्रयुक्त हो जाता है। कभी-कभी कर्ता की श्रद्धा के अनुसार यज्ञ विभिन्न रूप धारण कर लेते है। जब यज्ञ कर्ता की श्रद्धा दिव्यज्ञान के स्तर तक पहुंच जाती है तो उसे ज्ञान से वंचित द्रव्य यज्ञ करने वाले से श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि ज्ञान के बिना यज्ञ भौतिक स्तर पर रह जाते है और इनसे कोई आध्यात्मिक लाभ की आशा नहीं रह जाती है।
किन्तु जब यज्ञ को दिव्यज्ञान के स्तर तक पहुंचा दिया जाता है तो ऐसे सारे कर्म आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर लेते है। चेतना भेद के अनुसार ऐसे यज्ञ कर्म कभी-कभी कर्मकांड कहलाते है और कभी ज्ञानकाण्ड कहे जाते है। यज्ञ की श्रेष्ठता ज्ञान में ही सन्निहित है अर्थात वही यज्ञ श्रेष्ठ है जिसकी पूर्णाहुति ज्ञान में हो जाए।
34- गुरु की शरण – श्री कृष्ण का कथन है – हे अर्जुन, तुम गुरु की शरण में जाकर सत्य की खोज करो और सत्य को जानने का प्रयास करो। गुरु से विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्धि व्यक्ति तुम्हे ज्ञान प्रदान कर सकते है क्योंकि उन्होंने स्वयं सत्य का दर्शन किया है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – निस्संदेह आत्म साक्षात्कार का मार्ग कठिन है। अतः भगवान का उपदेश है कि उन्ही से प्रारंभ होने वाली परंपरा से प्रामाणिक गुरु की शरण में जाना चाहिए। भागवत का (6. 3. 19) का कथन है – धर्म पथ का निर्माण स्वयं भगवान ने किया है। अतएव मनो धर्म या शुष्क तर्क से सही पद प्राप्त नहीं हो सकता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए उसे प्रामाणिक गुरु की शरण में जाना ही होगा।
इस परंपरा के सिद्धांत का पालन किए बिना कोई प्रामाणिक गुरु नहीं बन सकता है। भगवान आदि गुरु है, अतः गुरु परंपरा का ही व्यक्ति अपने शिष्य को भगवान का संदेश प्रदान कर सकता है। कोई अपनी निजी विधि का निर्माण करके स्वरूप सिद्ध नहीं बन सकता, जैसा कि आजकल के मुर्ख पाखंडी करने लगे है।
ज्ञान ग्रंथो के स्वतंत्र अध्ययन से कोई आध्यात्मिक जीवन में उन्नति नहीं कर सकता है। स्वरूपसिद्ध गुरु की प्रसन्नता ही आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का रहस्य है। ऐसे गुरु को पूर्ण समर्पण करके ही स्वीकार करना चाहिए और अहंकार रहित होकर दास की भांति ही गुरु की सेवा करनी चाहिए।
जिज्ञासा और विनीत भाव के मेल से ही आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति संभव है। बिना सेवा के और बिना विनीत भाव के विद्वान् गुरु से की गई जिज्ञासा कदापि प्रभाव पूर्ण नहीं होगी। शिष्य को न केवल विनीत भाव से सुनना चाहिए अपितु विनीत भाव तथा सेवा और जिज्ञासा द्वारा गुरु से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
शिष्य को गुरु-परीक्षा में उत्तीर्ण होने का अथक प्रयास करना चाहिए और जब गुरु शिष्य में वास्तविक इच्छा देखता है तो स्वतः ही शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान का आशीर्वाद प्रदान करता है। यहां अन्धानुगम तथा निरर्थक जिज्ञासा की निंदा की गई है। प्रामाणिक गुरु का स्वभाव शिष्य के प्रति सदैव ही दयालु होता है। अतः यदि शिष्य विनीत होकर सेवा में तत्पर रहे तो ज्ञान और जिज्ञासा का विनिमय निःसंदेह ही पूर्ण हो जाता है।
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