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श्री कृष्ण कहते है – हे अर्जुन ! इन्द्रिया इतनी प्रबल है कि वह उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती है। जो उन्हें वश में करने का प्रयास करता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – कृष्ण भावनामृत इतनी दिव्य सुंदर वस्तु है कि इसके प्रभाव से भौतिक भोग स्वतः ही नीरस हो जाता है। यह वैसा ही है जैसे कोई भूखा मनुष्य प्रचुर मात्रा में पुष्टिदायक भोजन करके अपनी भूख मिटा लेता है। महाराज अम्बरीष भी परम योगी दुर्वासा मुनि पर इसलिए विजय पा सके क्योंकि उनका मन निरंतर कृष्ण भावनामृत में लगा रहता था। (स वैः मन, कृष्णपदारविन्दयोः वचांसि वैकुण्ठ गुणानवर्णने)
अनेक विद्वान ऋषि दार्शनिक तथा आध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने के लिए प्रयत्न करते है किन्तु उनमे से बड़े से बड़ा भी कभी-कभी विचलित मन के कारण ही इन्द्रिय भोग का कारण बन जाता है। यहां तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि तथा पूर्ण योगी को भी मेनका के साथ विषयभोग में प्रवृत्त होना पड़ा था। यद्यपि वह इन्द्रिय निग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे। विश्व इतिहास में इसी तरह के अनेक दृष्टान्त है। अतः पूर्णतया कृष्ण भावनाभावित हुए बिना मन तथा इन्द्रियों को वश में कर सकना अत्यंत कठिन होता है। मन को कृष्ण में लगाए बिना मनुष्य ऐसे भौतिक कार्यो को कदापि बंद नहीं कर पाता है।
परम साधु तथा भक्त यामुनाचार्य ने एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि – “जब से मेरा मन भगवान कृष्ण के चरणारविन्दो की सेवा में लग गया है और जब से मैं नित्य नवदिव्य रस का अनुभव करता रहा हूँ तब से स्त्री प्रसंग का विचार आते ही मेरा मन उधर से फिर जाता है और मैं ऐसे विचार पर थू-थू करता हूँ।”