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Satyarth Prakash Hindi Pdf सत्यार्थ प्रकाश Pdf
सत्यार्थ प्रकाश Pdf Free Download
सत्यार्थ प्रकाश के बारे में

सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धांतो को आगे बढ़ाना था। इसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन अजमेर में हुआ था। इसकी रचना 1875 में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने हिंदी में की थी। इस ग्रंथ में इस्लाम और ईसाई मतों का खंडन किया गया है।
इस ग्रंथ के लेखन स्तर पर ‘सत्यार्थ प्रकाश भवन’ का निर्माण किया गया है। जिस समय में हिन्दू धर्म एवं संस्कृत को बदनाम किया जा रहा था उस षडयंत्र को विफल करने के लिए ही महर्षि दयानन्द ने इसका नाम सत्य के ऊपर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ की रचना की थी।
गीता सार सिर्फ पढ़ने के लिए
श्री कृष्ण कहते है – जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में वाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अग्रसर होता रहता है। उसी प्रकार से मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर पुरुष ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होते है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – प्रत्येक जीव एक व्यष्टि आत्मा है। वह प्रतिक्षण अपना शरीर बदलता रहता है। कभी बालक के रूप में, कभी युवा के रूप मे, कभी वृद्ध पुरुष के रूप में तो भी आत्मा वही रहती है। जिस मनुष्य को व्यष्टि आत्मा, परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रकृति का पूर्ण ज्ञान रहता है वह धीर कहलाता है। ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता है। यह व्यष्टि आत्मा मृत्यु होने पर अंततोगत्वा एक शरीर बदलकर दूसरे शरीर में देहांतरण कर जाता है।
अर्जुन के लिए न ही भीष्म न तो द्रोण के लिए शोक करने का कोई कारण था। अपितु उसे तो प्रसन्न होना चाहिए था। वह अपने पुराने शरीर को बदलने के पश्चात् नया शरीर धारण करेंगे और इस तरह उन्हें नई शक्ति प्राप्ति होगी। चूंकि अगले जन्म में इनको शरीर मिलना अवश्यंभावी है चाहे वह शरीर भौतिक हो या आध्यात्मिक। ऐसे शरीर परिवर्तन से जीवन में किए गए कर्मानुसार नाना प्रकार के सुखोपभोग या फिर कष्टों का लेखा हो जाता है।
गीता में पुष्टि हुई है कि परमात्मा के खंडो का शाश्वत (सनातन) अस्तित्व है जिन्हे क्षर कहा जाता है अर्थात उनमे भौतिक प्रकृति में गिरने की प्रवृत्ति होती है। चूंकि भीष्म व द्रोण दोनों ही साधु पुरुष थे इसलिए अगले जन्म में उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे नहीं तो कम से कम उन्हें स्वर्ग में भोग करने के अनुरूप शरीर तो प्राप्त होंगे ही अतः दोनों ही दशा में भीष्म तथा द्रोण के लिए शोक का कोई भी कारण नहीं था।
आत्मा के एकात्मवाद का मायावादी सिद्धांत मान्य नहीं किया जा सकता है क्योंकि आत्मा के इस प्रकार विखंडन से परमेश्वर विखंडनीय या परिवर्तनशील हो जाएगा जो परमात्मा में अपरिवर्तनीय सिद्धांत के विरुद्ध होगा। जीव एक बार मुक्त होने पर वह श्री भगवान के साथ ही सच्चिदानंद रूप में रहता है। परमात्मा का प्रतिबिंबवाद का सिद्धांत व्यवहृत किया जा सकता है। जो प्रत्येक शरीर में विद्यमान रहता है वह व्यष्टि जीव से भिन्न होता है। यह भिन्न अंश (खंड) नित्य भिन्न रहते है। यहां तक मुक्ति के बाद भी व्यष्टि आत्मा जैसे का तैसा भिन्न अंश बना रहता है।
जैसा कि चतुर्थ अध्याय के प्रारंभ में स्पष्ट है जीव और भगवान का स्तर अलग-अलग होता है। वह समान स्तर पर नहीं होते है। यदि अर्जुन कृष्ण के समान स्तर पर हो और कृष्ण अर्जुन से श्रेष्ठतर न हो तो उनमे उपदेशक तथा उपदिष्ट का संबंध अर्थहीन होगा। जब आकाश का प्रतिबिंब जल में पड़ता है तो प्रतिबिंब में सूर्य, चंद्र, तारे सभी रहते है तारो की तुलना जीवो से तथा सूर्य या चंद्र की तुलना परमेश्वर से की जा सकती है। व्यष्टि अंश आत्मा को अर्जुन के रूप में और परमात्मा को श्री भगवान के रूप में प्रदर्शित किया जाता है।
यदि यह दोनों (कृष्ण और अर्जुन) माया द्वारा मोहित होते है तो एक को उपदेशक और दूसरे को उपदिष्ट होने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि माया के चंगुल में रहकर कोई भी प्रारंभिक उपदेशक नहीं बन सकता है और ऐसा उपदेश व्यर्थ होगा। ऐसी परिस्थितियों में यह मान लिया जाता है भगवान कृष्ण परमेश्वर है जो पद में माया द्वारा विस्मृत अर्जुन रूपी जीव से सदा ही श्रेष्ठ है।
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