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Ravan Aryavart ka Shatru Pdf free
पुस्तक का नाम | रावण आर्यावर्त का शत्रु |
पुस्तक के लेखक | अमीष त्रिपाठी |
भाषा | हिंदी |
श्रेणी | उपन्यास |
फॉर्मेट | |
साइज | 4.7 Mb |
कुल पृष्ठ | 285 |


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जीवन की डगर हिंदी कहानी
जीवन की डगर पर चलने वाली गाड़ी को बहुत संभाल कर चलना पड़ता है। अगर गाड़ी का एक पहिया निकल गया तो स्टेपनी रुपी दूसरा पहिया लगाने पर भी पहला पहिया दूसरे से सामंजस्य में सहजता अनुभव नहीं करता। जिसका परिणाम आए दिन की मुश्किलों में परिणित हो जाता है। इस बात का अनुभव प्रताप काका से अधिक किसको हो सकता था।
प्रताप काका इंजीनियर थे। उनके साथ उनकी अर्धांगिनी निशा थी। उनका एक ही पुत्र था जिसका नाम कौशिक था। प्रताप काका ने इंजीनियर पद पर रहते हुए नाम और पैसा कमाया था।
बड़े – बड़े भवन और पुल उनके निर्देशन पर बनाए हुए उत्कृष्ट उदहारण थे। पिता के नाम और काम को देखकर उनका लड़का भी उसी रास्ते पर चलकर एक बहुत ही कुशल इंजीनियर बन चुका था।
उसे अपने पिता से अपार स्नेह था, लेकिन ईश्वर से प्रताप काका की खुशियां देखी नहीं गई। फलतः निशा को अपने पास बुला लिया। लेकिन निशा के उपरांत दिवस होना चाहिए, परन्तु प्रताप काका के जीवन में निशा और भी गहरी हो गई।
आज के माहौल में एकल परिवार का प्रचलन बहुत ही तेजी से बढ़ा है। जिसका दुखद पहलू भी सामने आ रहा है। छोटे- छोटे बच्चों को दादा- दादी का प्यार नहीं मिल पाता।
उनका अनुभव भी बच्चो को नहीं मिलता, किस्से कहानी और लोरियां भी किसी को याद नहीं। यह सब बातें गुजरे ज़माने की बातें हो गई,अगर दोनों जिंदगी के गाड़ी रुपी पहिए में मनमुटाव हो गया तो बड़े बुजुर्ग लोग मैकेनिक की तरह पहियों को समझाकर मरम्मत करते हुए एक साथ गाड़ी को फिर से जिंदगी की डगर पर लाते थे, लेकिन आज के युग में वह मैकेनिक भी नहीं है।
परिणाम स्वरुप दोनों पहियों में तनाव होने पर किसी एक को अपना अहं त्यागना पड़ता है, जिसका उसे हमेशा मलाल रहता है। पहले मैकेनिक की सहायता से सब संभव था। उससे पूछो जिसने अपने बुजुर्गो के साथ जिंदगी के कुछ पल व्यतीत किए है।
कौशिक का अपना परिवार था। उसका एक छोटा सा लड़का भी था उसकी अर्धांगिनी शीला तो मानो कैकेई का दूसरा रुप थी। बात बात में कोप भवन में चली जाती। कौशिक के पास उसके पिता का दिया हुआ सब कुछ था, और वह जो कुछ भी था वह भी अपने पिता के प्रयासों का फल था।
शीला ने गुस्से में कौशिक से कहा, ” अब मैं इस घर में नहीं रहूंगी। या तो आप अपने पिता को कही अन्यंत्र भेज दो या फिर मैं ही चली जाउंगी। ” ” मैं तुम्हारे लिए अपने पिता को नहीं छोड़ सकता जिनके अस्तित्व से मैं आज इस मुकाम पर पंहुचा हूं। तुम्हे क्या मालूम ? पिता के बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं रहेगा। और मैं उनके द्वारा ही आज इस लायक बना हूँ, और बाहर भी उनके नाम को लोग आदर के साथ स्मरण करते है। ” कौशिक ने भी गुस्से से कहा।
” बेटा कौशिक क्या बात है ? आज तुम फिर तनाव में दिख रहे हो ? राजू नहीं दिख रहा है। ” कौशिक के पिता ने कहा। इसपर कौशिक ने कहा, ” वह कहीं खेल रहा होगा। ”
” बेटा मैं तुम्हारी बातों को समझता हूं। हर पिता अपने बेटे को खुश देखना चाहता है। मै भी चाहता हूं कि तुम दोनों खुश रहो। हमारे लिए तो पुरखो का गांव ही प्यारा और न्यारा है।
मैं वहां आराम से रह लूंगा वहां अभी भी हमारे उम्र वाले साथी है। बहुत ख़ुशी से निर्वाह हो जाएगा। मैं कल ही अपने पुरखों के गांव चला जाऊंगा। ” कौशिक के पिता ने कहा।
प्रताप काका को आज कौशिक की माँ निशा की बहुत याद आ रही थी। प्रताप काका ने अपना थैला उठाया और उसमे अपने आवश्यकता की रख ली और चल दिए अपने पुरखो के गांव। कौशिक उन्हें छोड़ने के लिए जाना चाहता था, लेकिन प्रताप काका ने मना कर दिया।
कौशिक सोच रहा था, ” महाराज दशरथ इसी तरह विवश हो गए होंगे कैकेई के समक्ष जिस कारण राम को वनगमन करना पड़ा। ” और आज वह स्वयं शीला रुपी कैकेई के आगे विवश था पिता रुपी राम को जाने से ना रोक। सका ग्लानि में उसकी आँखे नम हो गई। आज एक बार फिर दशरथ कैकेई के सामने परास्त हो चुके थे।
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