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Rajatarangini Hindi Pdf Free


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राज तरंगिणी का मतलब है। राजाओ की नदी, इसका भावार्थ है राजाओ के इतिहास का समय और उसका प्रवाह, राजतरंगिणी एक संस्कृत ग्रंथ है जो कल्हण द्वारा रचित है। राजतरंगिणी केप्रथम तरंग में – पांडवो के सबसे छोटे भाई सहदेव के राज्य की स्थापना को बताया गया है।
राजतरंगिणी में कश्मीर के इतिहास का वर्णन मिलता है जो महाभारत काल से प्रारंभ है। इस पुस्तक से यह भी ज्ञात होता है कि कश्मीर का नाम पहले ब्रह्मा के पुत्र ऋषि मारीच के पुत्र ‘कश्यपमेरु’ के नाम से विख्यात था।
उस समय केवल वहां वैदिक धर्म ही प्रचलित था। 19वी सदी के उत्तरार्ध में ‘ओरल स्टीन’ नामक अंग्रेज ने ‘राजतरंगिणी’ का अंग्रेजी में अनुवाद पंडित गोविंद कौल से कराया था।
स्वयं कल्हण कवि ने कहा है सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को निष्पक्ष और रागद्वेष हीन न्यायाधीश की तरह होना चाहिए तभी वह प्रशंसा का पात्र होता है। स्वाध्यायः एव गुणवान रागद्वेष बहिष्कृता। भूतार्थ कथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती। इति राजतरंगिणी .
ध्यान योग सिर्फ पढ़ने के लिए
बद्ध जीव का मित्र और शत्रु (मन) – श्री कृष्ण कहते है – मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे क्योंकि यह मन बद्ध जीव का मित्र और शत्रु दोनों है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – प्रसंग के अनुसार आत्मा शब्द का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा होता है। योग पद्धति में मन तथा आत्मा का विशेष महत्व है चूंकि मन ही योग पद्धति का केंद्र बिंदु होता है। अतः इस प्रसंग में आत्मा का तात्पर्य मन है। इस जगत में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा ही प्रभावित होता है। वास्तव में शुद्ध आत्मा इस संसार में इसलिए फंसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है।
योग पद्धति का उद्देश्य मन को रोकना है और इन्द्रिय जनित कार्यो से उसे हटाना है। यहां पर इस बात पर बल दिया गया है कि मन को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाय कि वह बद्ध जीव को अज्ञान के दलदल से बाहर निकाल सके। इस जगत में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है। मनुष्य को इन्द्रिय विषयो में फंसकर अपने को पतित होने से बचाना चाहिए। जो जितना ही इन्द्रिय विषयो प्रति आकर्षण रखता है वह उतना ही इस भौतिक संसार में फंसता जाता है।
अतः यहां मन का प्रशिक्षित होना अनिवार्य है। उसे (मन को) इस संसार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति (माया) की तड़क-भड़क से प्रभावित न हो सके और इस तरह से बद्ध जीव की रक्षा की जा सके। अपने को भौतिकता से विरक्त करने का उत्तम साधन कृष्ण भावनामृत संलग रखना है। हिः शब्द इस बात द्योतक है कि उसे (कृष्ण भावनामृत में) अवश्य ही रत होना चाहिए।
अमृत बिंदु उपनिषद में (2) कहा भी गया है। “मन ही मनुष्य के बंधन का और मोक्ष का भी कारण है।” अतः जो मन निरंतर कृष्ण भावनामृत में लगा रहता है वही परम मुक्ति का कारण है।
मन पर विजय प्राप्त करना – श्री कृष्ण कहते है – जिसने मन को जीत लिया है। उसके लिए मन सबसे बड़ा मित्र है, किन्तु जी मन को जीतने में विफल रहता है मन उसका सबसे बड़ा शत्रु बना रहता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – जीव की स्वाभाविक स्थिति यह है कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करे। अतः जब तक मन अविजित शत्रु के रूप में रहता है तब तक मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की आज्ञा का करना पड़ता है।
अष्टांग योग के अभ्यास का प्रयोजन मन को वश में करना है। जिससे मानवीय लक्ष्य प्राप्त करने में वह मित्र बना रहे। मन को वश में किए बिना योगाभ्यास करना मात्र समय को नष्ट करना है।
किन्तु जब मन के ऊपर विजय प्राप्त हो जाती है तो मनुष्य उस भगवान की आज्ञा का पालन करता है जो सबके हृदय में परमात्मा स्वरुप स्थित है।
जो अपने मन को वश में नहीं कर सकते है वह सतत अपने परम शत्रु के साथ निवास करता है और इस तरह से उसका जीवन और लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते है।
वास्तविक योगाभ्यास हृदय के भीतर परमात्मा से भेट करना है तथा उनकी आज्ञा का पालन करना है। जो व्यक्ति साक्षात् कृष्ण भावनामृत स्वीकार करता है वह भगवान की आज्ञा के प्रति स्वतः ही समर्पित हो जाता है।
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