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Radheshyam Ramayan in Hindi Pdf
राधेश्याम रामायण की रचना कथावाचक राधेश्याम ने की थी। यह रामायण पद्य और गायनशैली में हैं। उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यह काफी लोकप्रिय है।
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Radheshyam Ramayana Online राधेश्याम रामायण
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कृष्ण भावना भावित कर्म सिर्फ पढ़ने के लिए
अर्जुन का भ्रम – यहां अर्जुन श्री कृष्ण से पूछते हैं – अर्जुन ने कहा – हे माधव, पहले आप मुझे कर्म का त्याग करने के लिए कहते है और फिर भक्ति पूर्वक कर्म करने का आदेश देते है क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बतायेंगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – भगवद्गीता के इस पंचम अध्याय में भगवान बताते है कि भक्ति पूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिंतन से श्रेष्ठ होता है। अतः इस प्रकार एक ही साथ भक्तिमय कर्म तथा ज्ञान युक्त अकर्म के महत्व को समझाते हुए कृष्ण ने अर्जुन के संकल्प को भ्रमित कर दिया है। अर्जुन यह समझता है कि ज्ञानमय सन्यास का अर्थ है – इन्द्रिय जनित कार्यो के समस्त रूपों का परित्याग।
भक्ति-पथ अधिक सुगम है क्योंकि दिव्य स्वरूपा भक्ति मनुष्य को कर्म बंधन से मुक्त करती है। द्वितीय अध्याय में आत्मा तथा उसके शरीर बंधन का सामान्य ज्ञान समझाया गया है, उसी में बुद्धियोग अर्थात भक्ति द्वारा इस भौतिक बंधन से निकलने का वर्णन हुआ है।
तृतीय अध्याय में ज्ञात होता है कि ज्ञानी पुरुष को कोई भी कार्य नहीं करने पड़ते है। चतुर्थ अध्याय में भगवान ने अर्जुन को बताया कि सारे यज्ञो की पूर्णाहुति (पर्यावसान) ज्ञान में होता है। किन्तु चतुर्थ अध्याय में ही भगवान ने अर्जुन को सलाह दिया कि उसे पूर्ण ज्ञान से परिपूर्ण होकर उठे और युद्ध करे।
किन्तु यदि कोई भक्तियोग में कोई कर्म करता है तो फिर कर्म का परित्याग कैसे हुआ ? दूसरे शब्दों में वह यह सोचता है कि ज्ञानमय सन्यास को सभी प्रकार के कार्यो से मुक्त होना चाहिए क्योंकि उसे कर्म तथा ज्ञान असंगत से लगते है।
ऐसा लगता है कि वह यह समझ ही नहीं पाया ज्ञान के साथ किया गया कर्म बंधनकारी नहीं होता तथा ऐसा कर्म अकर्म के ही समान होता है। अतएव वह (अर्जुन) यह पूछता है कि वह सब प्रकार से कर्म त्याग दे अथवा पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर कर्म करे।
2- भक्तिमय कर्म की श्रेष्ठता – श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है – मुक्ति के लिए कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम श्रेणी है। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्ति युक्त कर्म अति उत्तम श्रेणी का है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – सकाम कर्म ही भव बंधन का कारण है। मनुष्य अपने शारीरिक सुख का स्तर जब तक बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म में रत होता रहता है तब तक उसे विभिन्न शरीर में देहांतरण करते हुए भवबंधन से मुक्ति कदापि नहीं प्राप्त होती है। इसकी पुष्टि भागवत (5. 5. 4. 6) में इस प्रकार हुई है।
“लोग इन्द्रिय तृप्ति के पीछे मत्त है। वह लोग यह नहीं जानते कि उनका विभिन्न क्लेशो से युक्त यह शरीर उनके विगत सकाम कर्मो का ही फल है।
यद्यपि यह शरीर नाशवान है तो भी यह नाना प्रकार के कष्टों का कारण है और जब तक मनुष्य अपने स्वरुप को नहीं जान लेता तब तक उसे सकाम कर्म करना ही पड़ता है।”
अतः इन्द्रिय तृप्ति के हेतु कर्म करना चाहिए और यह श्रेयस्कर भी नहीं है। जब तक मनुष्य अपने असली स्वरुप के विषय में जिज्ञासा नहीं करता अर्थात खुद को जानने का प्रयास नहीं करता है तब तक उसका जीवन व्यर्थ ही रहता है और जब तक तृप्ति की इस चेतन अवस्था में उलझा रहता है तब तक उसका देहांतरण अवश्य ही होता रहेगा।
भले ही उसका मन सकाम कर्मो में व्यस्त रहे और अज्ञान द्वारा प्रभावित हो किन्तु उसे वासुदेव के प्रति प्रेम उत्पन्न करना ही चाहिए केवल तभी उसे भवबंधन से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो सकता है।
अतः यह ज्ञान ही (कि वह आत्मा है शरीर नहीं) मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। जीवात्मा के स्तर पर कर्म मनुष्य को करना होगा अन्यथा भाव बंधन से उबरने का अन्य कोई उपाय नहीं है।
परन्तु कृष्ण भावना भावित कर्म तो कर्ता को स्वतः ही सकाम कर्म के फल से मुक्त बनाता है। जिसके कारण से उसे भौतिक स्तर तक उतरना ही नहीं पड़ता है।
किन्तु कृष्ण भावना भावित होकर कर्म करना सकाम कर्म नहीं है। पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर किए गए कर्म से वास्तविक ज्ञान बढ़ता है।
बिना कृष्ण भावनामृत के केवल कर्मो के परित्याग से बद्ध जीव का हृदय शुद्ध नहीं होता है और जब तक हृदय शुद्ध नहीं होगा तब तक सकाम कर्म करना ही पड़ेगा।
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