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गीता सार सिर्फ पढ़ने के लिए
श्री कृष्ण कहते है – जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु भी निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्य पालन में शोक नहीं करना चाहिए।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान की इच्छा होने के कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अर्जुन स्वजनों की मृत्यु से भयभीत या शोकाकुल क्यों था ? मनुष्य को अपने कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म अवधि के समाप्त होने पर उसे मरना होता है जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार से मुक्ति प्राप्त किए बिना ही यह जन्म मृत्यु का चक्र चलता रहता है। अर्जुन विधि (क़ानूनू) को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मो के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यंत भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह अनुचित कर्तव्य पथ का चुनाव करे तो उसे नीचे गिरना होगा। जन्म मरण के इस चक्र से वृथा हत्या, वध तथा युद्ध का समर्थन नहीं होता है। किन्तु मानव समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अनिवार्य होता है।
28- जीव की प्रारंभिक अवस्था (अव्यक्त) – श्री कृष्ण कहते है – सारे जीव प्रारंभ में अव्यक्त रहते है। मध्य अवस्था में व्यक्त होते है और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते है। अतः शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – यदि हम भगवद्गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते है कि यह भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान है (अंत वंत इमे देहाः) किन्तु आत्मा शाश्वत है (नित्यस्योक्ताः शरीरिणः) तो हमे यह सदैव स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान) के समान है। अतः वस्त्र परिवर्तन होने पर शोक क्यों ? स्वप्न में हम आकाश में उड़ते है या राजा की तरह रथ पर आरूढ़ हो सकते है। लेकिन जागने पर देखते है कि न तो हम आकाश में है न रथ पर।
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