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उदासीन की भांति भौतिक कार्यो से विरक्त (भगवान) – भगवान कहते है – हे धनंजय ! यह सारे कर्म मुझे नहीं बांध पाते है। मैं उदासीन की भांति ही भौतिक कार्यो से सदैव ही विरक्त रहता हूँ।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – वेदांत सूत्र में (2,1,34) यह कहा गया है – भगवान इस जगत के द्वन्द में स्थित नहीं है, वह इन द्वंदों से अतीत है, न ही इस जगत की शृष्टि तथा प्रलय में ही उनकी आशक्ति रहती है।
सारे जीव अपने पूर्व कर्मो के अनुसार ही विभिन्न योनियों को प्राप्त होते रहते है और भगवान इसमें कोई व्यवधान नहीं डालते है। भगवान अपने बैकुंठ लोक में सदैव व्यस्त रहते है।
ब्रह्म संहिता में (5,6) कहा गया है। वह सतत दिव्य आनंदमय आध्यात्मिक कार्यो में रत रहते है। किन्तु भौतिक कार्यो से उनका कोई सरोकार नहीं रहता है।
सारे भौतिक कार्य उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा ही संपन्न होते है। वह सदा ही भौतिक कार्यो के प्रति उदासीन रहते है। इस उदासीनता को ही यहां पर उदासिनावत कहा गया है। यद्यपि छोटे से छोटे भौतिक कार्य पर भगवान का नियंत्रण रहता है। किन्तु वह उदासीनवत स्थित रहते है।
यहां पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उदाहरण पर्याप्त है – जो अपने आसान पर विराजमान रहकर सारे कार्य करता है – लेकिन अपने कार्यो से सदा पृथक रहता है – उसके आदेश से ही कई तरह की बातें घटित होती रहती है।
किसी को प्रचुर धनराशि मिलती है, किसी को फांसी दी जाती है, किसी को कारावास की सजा मिलती है – तो भी वह (न्यायाधीश) उदासीन रहता है।
उसे इस प्रकार की हानि-लाभ से कुछ लेना देना नहीं रहता है। इसी प्रकार से भगवान भी उदासीन रहते है – यद्यपि प्रत्येक कार्य में उनका हाथ रहता है।
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