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दृढ़ता से स्थिर होना (चेतना में) – श्री कृष्ण कहते है जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है। उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयो से खींच लेता है। वह पूर्ण चेतना में दृढ़ता पूर्वक स्थिर होता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – शास्त्रों में अनेक आदेश है उनमे से कुछ “करो” तथा कुछ “न करो” से संबंधित है। जब तक कोई इन ‘करो या न करो’ का पालन नहीं कर पाता और इन्द्रिय भोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्ण भावनामृत में स्थिर हो पाना असंभव है। किसी योगी भक्त या आत्म सिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इन्द्रियों को वस में कर सके किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के दास बने रहते है और इन्द्रियों के कहने पर ही चलते है। यह इस प्रश्न का उत्तर है कि योगी किस प्रकार से स्थित होता है।
यहां पर सर्वश्रेष्ठ उदाहरण कछुए का है – जो किसी भी समय अपने अंगो को समेट सकता है और विशिष्ठ उद्देश्य के लिए उन्हें प्रकट कर सकता है। इसी प्रकार कृष्ण भावनाभावित व्यक्तियों की इन्द्रिया भी केवल भगवान की विशिष्ठ सेवा के लिए काम आती है। अन्यथा उनका संकोच कर लिया जाता है।
यहां इन्द्रियों की तुलना विषैले सर्पो से की गई है। वह अत्यंत स्वतंत्रता पूर्वक तथा बिना किसी नियंत्रण के कर्म में प्रवित्त होना चाहती है। योगी या भक्त को इन इन्द्रिय विषय रूपी सर्पो को वश में करने के लिए एक सपेरे के भांति अत्यंत प्रबल होना चाहिए। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता है। अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है वह अपनी इन्द्रियों को आत्मसंतुष्टि में न करके भगवान की सेवा में लगाए। अपने इन्द्रियों को सदैव ही भगवान की सेवा में लगाए रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टान्त के अनुरूप ही है। जो स्वयं अपनी इन्द्रियों को समेटे रखता है।