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सिर्फ पढ़ने के लिये
वे सब देवता प्रसन्नचित्त हो दक्ष प्रजापति तथा वीरिणी की भूरि-भूरि प्रशंसा करके अपने-अपने स्थान को लौट गए। नारद! जब नौ महीने बीत गए तब लौकिक गति का निर्वाह कराकर दसवे महीने के पूर्ण होने पर चन्द्रमा आदि ग्रहो तथा ताराओ की अनुकूलता से युक्त सुखद मुहूर्त में देवी शिवा शीघ्र ही अपनी माता के सामने प्रकट हुई।
उनके अवतार लेते ही दक्ष बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें महान तेज से देदीप्यमान देख उनके मन में यह विश्वास हो गया कि साक्षात् वे शिवा देवी ही मेरी पुत्री के रूप में प्रकट हुई है। उस समय आकाश से फूलो की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। मुनीश्वर! सती के जन्म लेते ही सम्पूर्ण दिशाओ में तत्काल शांति छा गयी।
देवता आकाश में खड़े हो मांगलिक बाजे बजाने लगे। अग्निशालाओ की बुझी हुई अग्नियां सहसा प्रज्वलित हो उठी और सब कुछ परम मंगल हो गया। वीरिणी के गर्भ से साक्षात् जगदंबा को प्रकट हुई देख दक्ष ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और बड़े भक्ति भाव से उनकी बड़ी स्तुति की।
बुद्धिमान दक्ष के स्तुति करने पर जगन्माता शिवा उस समय दक्ष से इस प्रकार बोली जिससे माता वीरिणी न सुन सके। देवी बोले – प्रजापते! तुमने पहले पुत्री रूप में मुझे प्राप्त करने के लिए मेरी आराधना की थी तुम्हारा वह मनोरथ आज सिद्ध हो गया। अब तुम उस तपस्या के फल को ग्रहण करो।
उस समय दक्ष से ऐसा कहकर देवी ने अपनी माया से शिशुरूप धारण कर लिया और शैशवभाव प्रकट करती हुई वे वहां रोने लगी। उस बालिका का रोदन सुनकर सभी स्त्रियां और दासियाँ बड़े वेग से प्रसन्नता पूर्वक वहां आ पहुंची। पुत्री का अलौकिक रूप देखकर उन सभी स्त्रियों को बड़ा हर्ष हुआ।
नगर के सभी लोग उस समय जय-जयकार करने लगे। गीत और बाद्यों के साथ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। पुत्री का मनोहर मुख देखकर सबको बड़ी ही प्रसन्नता हुई। दक्ष ने वैदिक और कुलोचित आचार का विधि पूर्वक अनुष्ठान किया। ब्राह्मणो को दान दिया और दूसरों को भी धन बांटा।
सब ओर यथोचित गान और नृत्य होने लगे। भांति-भांति के मंगल कृत्यों के साथ बहुत से बाजे बजने लगे। उस समय दक्ष ने समस्त सद्गुणों की सत्ता से प्रशंसित होने वाली अपनी उस पुत्री का नाम प्रसन्नता पूर्वक उमा रखा। तदनन्तर संसार में लोगो की ओर से उसके और भी नाम प्रचलित किए गए।
जो सब के सब महान मंगलदायक तथा विशेषतः समस्त दुखो का नाश करने वाले है। वीरिणी और महात्मा दक्ष अपनी पुत्री का पालन करने लगे तथा वह शुक्लपक्ष की चन्द्रकला के समान दिनों दिन बढ़ने लगी। द्विजश्रेष्ठ! वाल्यावस्था में भी समस्त उत्तमोत्तम गुण उसमे उसी तरह प्रवेश करने लगे।
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