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सुख-दुःख सहने का अभ्यास – श्री कृष्ण कहते है – हे कुन्तीपुत्र ! सुख या दुःख का क्षणिक उदय तथा काल क्रम में उनका अंतर्ध्यान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओ के आने जाने के समान है। हे भरत वंशी ! वह इन्द्रिय बोध से उत्पन्न होते है और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – कर्तव्य का निर्वाह करते हुए मनुष्य को सुख तथा दुःख के क्षणिक आने जाने वाले क्रम को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए। जिस प्रकार एक गृहणी भीषण से भीषण गर्मी की ऋतु में (मई जून के महीनो में) भोजन पकाने में नहीं झिझकती है। वैदिक आदेशानुसार मनुष्य को माघ (जनवरी फरवरी) के मास में भी प्रातः काल स्नान करना चाहिए। उस समय अधिकाधिक ठंड पड़ती है किन्तु जो धार्मिक नियमो का पालन करने वाला है वह स्नान करने में तनिक भी नहीं हिचकता है।
इसी प्रकार युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म होता है। उसे अपने मित्र तथा परिजन से भी युद्ध करना पड़े तो उसे अपने धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए। जिस तरह जलवायु संबंधी असुविधाए होते हुए भी मनुष्य को अपना कर्तव्य पालन करना पड़ता है
मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए धर्म के विधि-विधान का पालन करना होता है क्योंकि ज्ञान तथा भक्ति से ही मनुष्य अपने को माया के बंधन से छुड़ा सकता है। अर्जुन को महान विरासत प्राप्त है। यहां उसे कौन्तेय कहने से उसके (मातृ कुल का) भान होता है तथा भारत कहने से उसके पितृ की ओर (पितृकुल) के संबंध का पता लगता है। महान विरासत प्राप्त होने के ही फलस्वरूप कर्तव्य निर्वाह का उत्तरदायित्व आ पड़ता है अतः अर्जुन युद्ध से विमुख कदापि नहीं हो सकता है।
15- समान दृष्टि (मुक्ति के योग्य) – भगवान कहते है – हे पुरुष श्रेष्ठ (अर्जुन) ! जो पुरुष सुख में तथा दुःख में विचलित नहीं होता है और इन दोनों में समभाव रहता है वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – जो व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार की उच्च अवस्था प्राप्त हेतु कृतसंकल्प है और सुख दुःख के प्रहारों को समभाव से सह सकता है वह निश्चित ही मुक्ति के योग्य है। जो व्यक्ति अपने जीवन को सचमुच पूर्ण बनाना चाहता है वह समस्त कठिनाइयों के होते हुए भी सन्यास आश्रम अवश्य ग्रहण करता है। यह कठिनाइया पारिवारिक संबंध-विच्छेद करने पत्नी और संतान से संबंध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती है।
वर्णाश्रम धर्म में चौथी अवस्था अर्थात सन्यास आश्रम कष्टप्रद अवस्था होती है। किन्तु जो इन आने वाले कष्टप्रद अवस्था को सहन कर लेता है उसके आत्मसाक्षात्कार का मार्ग अवश्य ही प्रशस्त हो जाता है। अतः अर्जुन को क्षत्रिय धर्म के निर्वाह में दृढ रहने के लिए कहा जा रहा है। भगवान चैतन्य ने चौबीस वर्ष की अवस्था में ही सन्यास आश्रम ग्रहण कर लिया था। यद्यपि उनपर आश्रित वृद्ध माता और तरुण पत्नी की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। अर्जुन को भले ही स्वजनों के साथ या अन्य प्रिय व्यक्तियों के साथ युद्ध करना कितना दुष्कर क्यों न हो तो भी उसे अपने कर्तव्य के लिए युद्ध करना ही चाहिए। चैतन्य महाप्रभु ने उच्च आदर्श स्थापित करने के लिए ही सन्यास ग्रहण किया था और अपने कर्तव्य पालन में स्थिर बने रहे। भवबंधन से मुक्ति पाने का यही एक मात्र उपाय है।
16- सत (आत्मा) अपरिवर्तित रहना – श्री कृष्ण कहते है – तत्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत (भौतिक शरीर) का तो कोई चिर स्थायित्व नहीं है किन्तु सत (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – परिवर्तनशील शरीर का कोई स्थायित्व नहीं है। आधुनकि चिकित्सा विज्ञान ने भी स्वीकार किया है कि विभिन्न कोशिकाओं की क्रिया प्रतिक्रिया द्वारा शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। स्वभावतः शरीर नित्य ही परिवर्तनशील है और आत्मा का स्वभाव शाश्वत होता है। शरीर का परिवर्तनशील होना ही शरीर में वृद्धि तथा वृद्धावस्था का आना है किन्तु शरीर तथा मन में निरंतर परिवर्तन होने पर भी आत्मा स्थाई रहता है यही पदार्थ तथा आत्मा का अंतर है। तत्वदर्शियों ने चाहे वह निर्विशेषवादी हो या सगुणवादी इस निष्कर्ष की स्थापना किया है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि विष्णु तथा उनके धाम स्वयं प्रकाश से प्रकाशित होते है (ज्योतिर्षिः विष्णु भुवनानि विष्णुः) सत तथा असत शब्द आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के ही द्योतक है। सभी तत्वदर्शियों की यह स्थापना है।
कोई भी भौतिक आत्मा के अध्ययन द्वारा परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकता है – आत्मा तथा परमात्मा का अंतर अंश तथा पूर्ण के अंतर के रूप में है। वेदांत सूत्र तथा श्रीमद्भागवत में परमेश्वर को समस्त उद्भवो (प्रकाश) का मूल माना गया है। यही से भगवान द्वारा अज्ञान से मोहग्रस्त जीवो को उपदेश देने का शुभारंभ होता है। अज्ञान को हटाने के लिए आराधक के बीच पुनः शाश्वत संबंध स्थापित करना होता है और फिर अंश रूप में जीव तथा श्री भगवान के अंतर को समझना होता है।
जैसा कि सातवे अध्याय से स्पष्ट हो जाएगा कि जीव का संबंध परा प्रकृति से है। यद्यपि शक्ति तथा शक्तिमान में कोई अंतर नहीं होता है किन्तु शक्तिमान को परम माना जाता है और शक्ति या प्रकृति को गौण। ऐसे उद्भवो का अनुभव परा तथा अपरा प्राकृतिक कर्मो द्वारा किया जाता अतः सारे जीव उसी तरह परमेश्वर के अधीन रहते है जिस तरह सेवक स्वामी के या शिष्य गुरु के अधीन रहता है। अज्ञान की अवस्था में ऐसे ज्ञान को समझ पाना संभव नहीं होता है। अतः ऐसे अज्ञान दूर करने के लिए सदा सर्वदा के लिए जीवो को प्रबुद्ध करने हेतु भगवान भगवद्गीता का उपदेश देते है।
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