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पराग अपने कार्यालय में बैठे हुए कही विचारो में खोये हुए थे। उनका जीवन भी एक किताब की तरह था जिसमे कई सारे अध्याय जुड़े हुए थे।
आज वही एक-एक करके उनके विचारो में आते जाते थे। उन्हें यहां तक पहुँचने में बहुत ही संघर्ष और समय लगा था और इन सब की प्रेरणा तो उनकी दादी मां थी जो बचपन में उनके सभी प्रश्नो का समाधान करती थी।
पराग की दादी का नाम केशर था। जब पराग छोटा था तभी उसकी माता ने पराग को अपने सासू मां के आंचल में सौपकर खुद ईश्वर के दरबार में हाजिरी लगाने पहुंच गयी। पराग के दादा मधुकर एक सिपाही थे। यह समय 1950 का था।
उन दिनों एक सरकारी विभाग में सिपाही होना भी बहुत बड़ा ओहदा था। वह दौर ऐसा था कि गांव, खेड़े में अच्छे ताकतवर आदमियों की संख्या बहुत अधिक होती थी। सारा कार्य कृषि के ऊपर ही आधारित रहता था। सभी लोग आज के जैसे साक्षर नहीं थे।
पुलिस बल की संख्या बहुत ही कम थी। इसी वजह से गांव के नौजवान युवको को पकड़कर पुलिस सेवा में भर्ती किया जाता था। साक्षरता की डर बहुत ही कम थी।
इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पराग के गांव के विधान सभा क्षेत्र के विधायक सिर्फ कक्षा चार तक ही पढ़े हुए थे और अपनी सीट पर 15 साल से विधायक बने हुए थे।
लेकिन उनके तर्क का जोड़ नहीं होता था। वह अपनी इसी तार्किक बुद्धि के बल पर ही अपनी विधायकी के निर्विरोध बादशाह बने हुए थे। पराग जब छोटा था तो प्रायः अपनी दादी से प्रश्न करता था मां हम इतने छोटे क्यों है? क्या हम जल्दी से बड़े नहीं हो सकते है?
पराग इतना छोटा था कि उसे अपनी जन्मदात्री माता का ध्यान ही नहीं था। वह अपनी दादी को ही मां कहता था और समझता भी था।
पराग की द्ददी मां उससे कहती थी बेटा जो जल्दी से बड़ा होता है वह ज्यादा समय तक इस दुनियां में टिक नहीं पाता है उसके विपरीत जिसका विकास धीरे-धीरे होता है वह ज्यादा समय तक इस दुनियां में टिका रहता है।
पराग छोटा था इसलिए दादी मां की बातो का अर्थ नहीं समझ पाता था लेकिन धीरे-धीरे उसे अपनी दादी मान की सभी बातो का अर्थ समझ में आने लगा था। पराग जब 5 साल का था तब उसकी दादी ने भी उसका साथ छोड़ दिया और उसकी मां के पास चली गयी।
अपनी दादी को याद करके पराग बहुत रोता था। एक दिन उसने अपनी दादी की याद में एक छोटा सा आम का पौधा लगाया। अब पराग 10 साल का हो गया था। उसके द्वारा लगाया गया आम का छोटा पौधा अब एक वृक्ष बन गया था। उसमे अब तक कही-कही आम के बौर आने लगे थे जिन्हे कुछ समय के बाद ही फल का रूप ग्रहण करना था।
पराग की दादी मां अक्सर कहा करती थी ‘पूत कपूत तब क्यूं धन संचय। पूत सपूत तब क्यूं धन संचय‘ यह कहावत आज पराग के ऊपर एकदम सटीक बैठ रही थी। 1950 से लेकर अब तक यानी कि 2022 तक बहुत बदलाव हो चुका है जिसे पराग ने अपनी आँखों से देखा है तथा खुद अनुभव किया है।
पराग ने सिर्फ दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त किया था। उसके बाद वह कलकत्ता चला गया। वहां एक मारवाड़ी की दुकान पर नौकरी करने लगा था।
समय के साथ ही परिवर्तन निश्चित होता है और पराग के साथ भी हुआ। पराग अपने मालिक गिरीश अग्रवाल का विश्वास अर्जित कर चुका था।
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