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Indrajal Comics Pdf in Hindi Download














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सिर्फ पढ़ने के लिये
जैसे शुक्लपक्ष के बाल चन्द्रमा में समस्त मनोहारिणी कलाये प्रविष्ट हो जाती है। दक्ष कन्या सती सखियों के मध्य बैठी-बैठी जब अपने भाव में निमग्न होती थी। तब बारंबार शिव की मूर्ति को चित्रित करने लगती थी। मंगलमयी सती जब बाल्योचित्त सुंदर गीत गाती तब स्थाणु, हर एवं रूद्र नाम लेकर स्मरशत्रु शिव का स्मरण किया करती थी।
ब्रह्मा जी कहते है – नारद! एक दिन मैंने तुम्हारे साथ जाकर पिता के पास खड़ी हुई सती को देखा। वह तीनो लोको की सारभूता सुंदरी थी। उसके पिता ने मुझे नमस्कार करके तुम्हारा भी सत्कार किया। यह देख लोक लीला का अनुसरण करने वाली सती ने भक्ति और प्रसन्नाता के साथ तुमको और मुझको भी प्रणाम किया।
नारद! तदनन्तर सती की ओर देखते हुए तुम और हम दक्ष के दिए हुए शुभ आसन पर विराजमान हो गए। तत्पश्चात मैंने उस विनयशीला बालिका से कहा – सती! जो केवल तुम्हे ही चाहते है और तुम्हारे मन में भी एकमात्र जिनकी ही कामना है उन्ही सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव जी को तुम प्रतिरूप प्राप्त करो।
शुभे! जो तुम्हारे सिवा दूसरी किसी स्त्री को पत्नी रूप में न तो ग्रहण कर सके है न करते है और न भविष्य में ही ग्रहण करेंगे वे ही भगवान शिव तुम्हारे पति हो। वे तुम्हारे ही योग्य है दूसरे के नहीं। नारद! सती से ऐसा कहकर मैं दक्ष के घर में देर तक ठहरा रहा।
फिर उनसे विदा ले मैं और तुम अपने-अपने स्थान को चले गए। मेरी बात को सुनकर दक्ष को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी सारी मानसिक चिंता दूर हो गयी और उन्होंने अपनी पुत्री को परमेश्वरी समझकर गोद में उठा लिया। इस प्रकार कुमारोचित सुंदर लीला विहारों से सुशोभित होती हुई भक्तवत्सला सती जो स्वेच्छा से मानव रूप धारण करके प्रकट हुई थी कौमारावस्था पार कर गयी।
बाल्यावस्था बिता कर किंचित युवावस्था को प्राप्त हुई सती अत्यंत तेज एवं शोभा से सम्पन्न हो सम्पूर्ण अंगो से मनोहर दिखाई देने लगी। लोकेश दक्ष ने देखा कि सती के शरीर में युवावस्था के लक्षण प्रकट होने लगे है। तब उनके मन में यह चिंता हुई कि मैं महादेव जी के साथ इनका विवाह कैसे करूँ?
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