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1- एक लड़का और एक लड़की की कहानी
2- अनकहे अहसास
5- अपराधिनी
8- चारुचित्रा
10- गाँव की बेटी
11- चोर की प्रेमिका
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गीता सार सिर्फ पढ़ने के लिए
लोभ से अभिभूत चित्त – अर्जुन कह रहा है – हे जनार्दन ! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले यह लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रो से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते है। किन्तु हम लोग जो परिवार के विनष्ट होने पर अपराध देख सकते है। ऐसे पाप के कर्मो में क्यों प्रवृत्त हो।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – क्षत्रिय से यह आशा कदापि नहीं की जाती कि अपने विपक्षी दल के द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमंत्रण दिए जाने पर मना करे।
इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया कि हो सकता है दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामो के प्रति अनभिज्ञ हो। ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से इंकार नहीं कर सकता था क्योंकि उसे दुर्योधन के पक्ष से ललकार मिली थी। किन्तु अर्जुन को तो दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे। अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता था।
इस पक्ष-विपक्ष पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया। यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय होता है यदि परिणाम विपरीत हुआ तो हम इसके लिए बाध्य नहीं होते। युद्ध से विनाश ही संभव था इसलिए अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था।
39- कुल के नाश से सनातन परंपरा का नष्ट होना – अर्जुन ने कहा – कुल का नाश होने पर सनातन कुल परंपरा नष्ट हो जाती है और इस तरह से शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – कुल में इन वयोवृद्ध लोगो की मृत्यु के पश्चात संस्कार संबंधी पारिवारिक परंपराए रुक जाती है और परिवार के जो तरुण सदस्य बचे रहते है वह अधर्म मय व्यसनों में प्रवृत्त होते है जिस कारण से उन्हें मुक्ति लाभ नहीं मिल पाता है। अतः किसी भी कारण वश परिवार के वयोवृद्ध लोगो का वध नहीं होना चाहिए।
वर्णाश्रम व्यवस्था में धार्मिक परंपराओं के अनेक नियम है। परिवार में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कारो के लिए वयोवृद्ध लोगो का उत्तरदायित्व होता है। जिनकी सहायता से परिवार के सदस्य ठीक से उन्नति करके आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि प्राप्त कर सकते है।
40- कुल में अधर्म की प्रमुखता होने से हानि – अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण ! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती है और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी ! अवांछित संताने उत्पन्न होती है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – जीवन में शांति सुख तथा आध्यात्मिक उन्नति का मुख्य सिद्धांत मानव समाज में अच्छी संतान का होना है। ऐसी संतान समाज में स्त्री के सतीत्व और उसकी निष्ठा पर निर्भर करती है। वर्णाश्रम धर्म के नियम इस प्रकार से बनाए गए थे कि राज्य तथा जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए समाज में अच्छी संतान उत्पन्न हो।
चाणक्य पंडित के अनुसार सामान्यतया स्त्रियां अधिक बुद्धिमान होती है अतः वह विश्वसनीय नहीं होती है। जिस प्रकार बालक सरलता से कुमार्ग के पथ का अनुकरण करते है उसी भांति स्त्रियां भी पतनोन्मुखी हो जाती है।
अतः बालको तथा स्त्रियों दोनों को ही समाज के वयोवृद्ध का संरक्षण आवशयक हो जाता है। इसलिए उन्हें विविध कुल परंपराओं में व्यस्त रहना ही चाहिए। इस तरह उनके सतीत्व तथा अनुरक्ति से ऐसी सन्तानो का जन्म होगा जो वर्णाश्रम धर्म में भाग लेने के योग्य हो सकेगी।
निठल्ले लोग भी समाज में व्यभिचार को प्रेरित करते है और इस तरह से अवांछित बच्चो की बाढ़ आ जाती है जिससे मानव जाति पर युद्ध और महामारी का संकट उत्पन्न हो जाता है।
ऐसे वर्णाश्रम धर्म के विनाश से यह स्वाभाविक है कि स्त्रियां स्वतंत्रता पूर्वक पुरुषो से मिल सकेगी और व्यभिचार को प्रश्रय मिलेगा जिससे अवांछित सन्तानो का जन्म होगा।
41- अवांछित सन्तानो से परिवार और परंपरा की हानि – अर्जुन कहता है – अवांछित सन्तानो की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परंपरा को विनष्ट करने वालो के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलो के पुरखे (पितर लोग) गिर जाते है क्योंकि उन्हें जल तथा पिंडदान देने की क्रियाए समाप्त हो जाती है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – कभी-कभी पितर गण विविध प्रकार के पाप कर्मो से ग्रस्त हो सकते है और कभी-कभी उनमे से कुछ को स्थूल शरीर प्राप्त न हो सकने के कारण उन्हें प्रेतों के रूप में सूक्ष्म शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
सकाम कर्म के विधि-विधानों के अनुसार कुल के पितरो को समय-समय पर जल तथा पिंडदान अवश्य दिया जाना चाहिए क्योंकि विष्णु को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट भाग (प्रसाद) के खाने से सारे पाप कर्मो से उद्धार हो जाता है। यह विष्णु पूजा के द्वारा किया जाता है।
अतः जब वंशजो के द्वारा पितरो को बचा हुआ प्रसाद अर्पित किया जाता है तो उनका प्रेत योनि या अन्य प्रकार के दुखमय जीवन से उद्धार हो जाता है और जो लोग भक्ति का जीवन यापन नहीं करते है उन्हें यह अनुष्ठान (पिंडदान) करना पड़ता है। पितरो को इस तरह सहायता पहुंचाना ही कुल परंपरा है। केवल भक्ति करने से मनुष्य सैकड़ो क्या हजारो पितरो को ऐसे संकटो से उबार सकता है।
भागवत में (11. 5. 41) कहा गया है। “जो पुरुष अन्य समस्त कर्तव्यों को त्यागकर मुक्ति के दाता मुकुंद के चरण कमलो की शरण ग्रहण करता है और इस पथपर गंभीरता पर्वक चलता है। वह देवताओ, मुनियो, सामान्य जीवो, स्वजनों, मनुष्यो या पितरो के प्रति अपने कर्तव्य या ऋण से मुक्त हो जाता है।” श्री भगवान की सेवा करने से ऐसे दायित्व स्वतः ही पूर्ण हो जाते है।
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