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Hensang Ki Bharat Yatra Pdf Download
पुस्तक का नाम | Hensang Ki Bharat Yatra Pdf |
पुस्तक के लेखक | ह्वेनसांग |
भाषा | हिंदी |
साइज | 8.49 Mb |
पृष्ठ | 442 |
फॉर्मेट | |
श्रेणी | इतिहास |
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चीनी यात्री ह्वेनसांग
ह्वेनसांग की भारत यात्रा 614 से 630 ई. के बीच हुई थी। उसे वर्तमान का शाक्यमुनि और नीति का पंडित कहा जाता है। 29 वर्ष की अवस्था में उसने भारत की यात्रा करने का निश्चय किया था। अपने देश से अनुमति नहीं मिलने पर गुप्त रूप से यात्रा पर निकल गया।
630 ई. में ताशकंद, वल्ख और समरकंद होते हुए वह गांधार पहुंचा। वह पंजाब में आया वहां से बुद्ध से संबंधित स्थान बनारस, कपिला वस्तु, गया और कुशीनगर की यात्रा किया वह कश्मीर भी गया था। ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का एक विवरण संकलित किया था जिसे सी.यू.की. कहा जाता है।
ह्वेनसांग ने अपनी यात्राओं के विवरण में ‘पश्चिमी विश्व के बौद्ध रिकार्ड’ जो वील की पुस्तक में प्राप्त होता है। इस चीनी यात्री के द्वारा हमे सातवीं शताब्दी के पूर्वाध में भारत में जीवन के सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक और धार्मिक तथा प्रशासनिक जानकारी प्राप्त होती है। भारत के नगरों तथा ग्रामो के विषय में ह्वेनसांग ने बहुत वर्णन किया है।
ह्वेनसांग के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था का वर्णन प्राप्त होता है। वह लिखता है कि उस समय भारतीय लोगो का जीवन स्तर बहुत उच्च था।
भारतीयों के जीवन स्तर से वह बहुत प्रभावित था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि पाटलिपुत्र अब भारत का अब प्रमुख नगर नहीं रहा। कन्नौज को प्रमुख नगर का स्थान प्राप्त हो गया। नालंदा और वलभी नगर में बौद्ध धर्म का जोर था।
सिर्फ पढ़ने के लिये
तब काली ने मन ही मन हंसकर मधुर वाणी में बोली – कल्याणकारी प्रभो! योगिन! आपने जो बात कही है क्या वह वाणी प्रकृति नहीं है? फिर आप उससे परे क्यों नहीं हो गए? इन सब बातो को विचार करके तात्विक दृष्टि से जो यथार्थ बात हो, उसी को कहना चाहिए।
यह सब कुछ सदा प्रकृति से प्रकृति से बंधा हुआ है। इसलिए आपको न तो बोलना चाहिए और न कुछ करना ही चाहिए क्योंकि कहना और करना सब व्यवहार प्राकृत ही है। आप अपनी बुद्धि से इसको समझिये। आप जो कुछ सुनते खाते देखते और करते है वह सब प्रकृति का ही कार्य है।
झूठे वाद-विवाद करना व्यर्थ है। प्रभो! शंभो! यदि आप प्रकृति से परे है तो इस समय इस हिमवान पर्वत पर आप तपस्या किस लिए करते है? हर! प्रकृति ने आपको निगल लिया है। अतः आप अपने स्वरुप को नहीं जानते। ईश! आप यदि अपने स्वरुप को जानते है तो किसलिए तप करते है?
योगिन! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होने पर विद्वान पुरुष अनुमान प्रमाण को नहीं मानते। जो कुछ प्राणियों की इन्द्रियों का विषय होता है वह सब ज्ञानी पुरुषो को बुद्धि से विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिए।
योगीश्वर! बहुत कहने से क्या लाभ? मेरी उत्तम बात सुनिए। मैं प्रकृति हूँ। आप पुरुष है। यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। मेरे अनुग्रह से ही आप सगुण और साकार माने गए है। मेरे बिना तो आप निरीह है। कुछ भी नहीं कर सकते है। आप जितेन्द्रिय होने पर भी प्रकृति के अधीन हो सदा नाना प्रकार के कर्म करते रहते है।
फिर निर्विकार कैसे है? और मुझसे लिप्त कैसे नहीं? शंकर! यदि आप प्रकृति से परे है और यदि आपका यह कथन सत्य है तो आपको मेरे नजदीक रहने पर भी डरना नहीं चाहिए। ब्रह्मा जी कहते है – पार्वती का यह सांख्य शास्त्र सुनकर भगवान शिव वेदांत मत में स्थित हो उनसे यों बोले।
सुंदर भाषण करने वाली गिरिजे! यदि तुम सांख्य मत को धारण करके ऐसी बात कहती हो तो प्रतिदिन मेरी सेवा करो परन्तु वह सेवा शास्त्र निषिद्ध नहीं होनी चाहिए। गिरिजा से ऐसा कहकर भक्तो पर अनुग्रह और उनका मनोरंजन करने वाले भगवान शिव हिमवान से बोले।
गिरिराज! मैं यही तुम्हारे अत्यंत रमणीय श्रेष्ठ शिखर की भूमि पर उत्तम तपस्या तथा अपने आनंदमय परमार्थ स्वरुप का विचार करता हुआ विचरूँगा। पर्वतराज! आप मुझे यहां तपस्या करने की अनुमति दे। आपकी अनुज्ञा के बिना कोई तप नहीं किया जा सकता।
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