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दिव्यज्ञान सिर्फ पढ़ने के लिए
यज्ञ की अनेक विधिया (श्रेणियां) – श्री कृष्ण कहते है कुछ योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञो द्वारा देवताओ की भली भांति पूजा करते है और कुछ परब्रह्म रूपी अग्नि मे आहुति डालते है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – जैसा पहले ही कहा जा चुका है जो व्यक्ति कृष्ण भावनामृत या कृष्ण भावना भावित होकर अपना कर्म करने में लीन रहता है वह पूर्ण योगी है। किन्तु ऐसे भी मनुष्य है जो देवताओ की पूजा करने के लिए यज्ञ करते है और कुछ परम् ब्रह्म या परमेश्वर के निराकार स्वरुप के लिए यज्ञ करते है। इस तरह से यज्ञ की अनेक श्रेणियां है।
जो कृष्ण भावना भावित है। उसकी भौतिक सम्पदा परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए होती है किन्तु जो किसी क्षणिक भौतिक सुख की कामना करते है वह इंद्र सूर्य आदि देवताओ को प्रसन्न करने के लिए अपनी भौतिक सम्पदा की आहुति देते है। किन्तु अन्य लोग जो निर्विशेष वादी है वह निराकार ब्रह्म में अपने स्वरुप को स्वाहा कर देते है।
विभिन्न यज्ञ कर्ताओ द्वारा संपन्न यज्ञ की यह श्रेणियां केवल बाह्य वर्गीकरण है। वस्तुतः यज्ञ का अर्थ है भगवान विष्णु को प्रसन्न करना और विष्णु को यज्ञ भी कहते है। विभिन्न प्रकार के यज्ञो को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। सांसारिक द्रव्यों के लिए यज्ञ (द्रव्य यज्ञ) तथा दिव्य ज्ञान के लिए किए गए यज्ञ (ज्ञान यज्ञ) कहलाते है।
ऐसे निर्विशेष वादी परमेश्वर की दिव्य प्रकृति को समझने के लिए दार्शनिक चिंतन में अपना सारा समय व्यतीत करते है। दूसरे शब्दों में कहे तो सकाम कर्मी भौतिक सुख के लिए अपनी भौतिक सम्पत्ति का यजन करते है। किन्तु निर्विशेष वादी परम् ब्रह्म में लीन होने के लिए अपनी भौतिक उपाधियों का यजन करते है।
देवतागण ऐसी शक्तिमान जीवात्माएँ है जिन्हे ब्रह्माण्ड को उष्मा प्रदान करने, जल प्रदान करने, तथा ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने जैसे भौतिक कार्यो की देख-रेख के लिए परमेश्वर ने नियुक्त किया है। जो लोग भौतिक लाभ की चाहत रखते है वह वैदिक अनुष्ठानो के अनुसार विविध देवताओ की पूजा करते है।
निर्विशेष वादी के लिए यज्ञाग्नि ही परब्रह्म है जिसमे आत्मस्वरूप का विलय ही आहुति है। किन्तु जो लोग परम् सत्य के निर्गुण स्वरुप की पूजा करते है और देवताओ के स्वरुप को अनित्य मानते है वह ब्रह्म की अग्नि में अपने आप की आहुति देते है और इस प्रकार से ब्रह्म के अस्तित्व में अपने अस्तित्व को समाप्त कर देते है।
किन्तु अर्जुन जैसा कृष्ण भावना भावित व्यक्ति कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है। इस तरह उसकी सारी भौतिक संपत्ति के साथ-साथ आत्म स्वरुप भी कृष्ण के लिए अर्पित हो जाता है। वह परम् योगी है किन्तु उसका पृथक स्वरुप नष्ट नहीं होता।
मनुष्य के चार आश्रमों की व्याख्या – श्री कृष्ण कहते है। इनमे से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओ तथा इन्द्रियों को मन की नियंत्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते है तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इन्द्रिय विषयो को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – मानव जीवन के चारो आश्रमों के सदस्य – ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यासी – पूर्ण योगी बनने में निमित्त है। मानव जीवन पशुओ की भांति इन्द्रिय तृप्ति के लिए नहीं बना है। अतएव मानव जीवन के चारो आश्रम इस प्रकार व्यवस्थित है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सके।
श्रवण ज्ञान का मूलाधार है अतः शुद्ध ब्रह्मचारी सदैव “हरेर्नामुकीर्तमानम” अर्थात भगवान के यश का कीर्तन तथा श्रवण में ही लगा रहता है। ब्रह्मचारी या शिष्य गण प्रामाणिक गुरु की देख-रेख में इन्द्रिय तृप्ति से दूर रहकर मन को वश में करते है। वह कृष्ण भावनामृत से संबंधित शब्दों को ही सुनते है।
इच्छाओ से रहित – ममता का त्याग – श्री कृष्ण कहते है – जिस व्यक्ति ने इन्द्रिय तृप्ति की समस्त इच्छाओ का परित्याग कर दिया है जो इच्छाओ से रहित है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है वही व्यक्ति शांति को प्राप्त कर सकता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – भौतिक दृष्टि से इच्छा शून्य व्यक्ति जानता है की प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण की है। (ईशावास्यमिदं सर्वम) अतः किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व घोषित नहीं करता है। यह दिव्य ज्ञान आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है अर्थात इस ज्ञान पर कि प्रत्येक जीव कृष्ण का ही अंश स्वरुप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो कृष्ण के तुल्य हो सकती है न तो कृष्ण से बढ़कर हो सकती है।
निस्पृह होने का अर्थ है इन्द्रिय तृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना। दूसरे शब्दों में कृष्ण भावना भावित होने की इच्छा ही वास्तव में इच्छा शून्यता या निस्पृहता है। इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने बिना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे बिना ही श्री कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना ही कृष्ण भावनामृत की सिद्ध अवस्था है।
जो ऐसी सिद्ध अवस्था में स्थिर होता है। वह जानता है कि कृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी है, वह प्रत्येक वस्तु का उपयोग कृष्ण की तुष्टि के लिए ही करता है। वास्तविक इच्छा शून्यता कृष्ण की तुष्टि के लिए इच्छा है। यह इच्छाओ को नष्ट करने का कोई कृतिम प्रयास नहीं है। जीव कभी भी इच्छा शून्य या इन्द्रिय शून्य नहीं हो सकता है। किन्तु उसे अपनी इच्छाओ की गुणवत्ता बदलनी होती है इस प्रकार से वह कृष्ण भावनामृत का ज्ञान ही वास्तविक शांति का मूल सिद्धांत है।
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