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Aditya Hridaya Stotra Pdf In Hindi / आदित्य ह्रदय स्तोत्र पीडीएफ फ्री
आदित्य हृदय स्तोत्र हिंदी pdf गीता प्रेस

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आदित्य हृदय स्तोत्र भगवान सूर्यदेव का सबसे शक्तिशाली मंत्र है। इस स्तोत्र के माध्यम से आप अपने जीवन में आये समस्त कष्टों को ख़त्म कर सकते है।
इस स्तोत्र को सर्वप्रथम महर्षि अगत्स्य ने राम-रावण युद्ध के दौरान भगवान श्री राम को सुनाया और यह बहुत ही फलदायी हुआ और भगवान श्री राम जी की जीत हुई। इस स्तोत्र के माध्यम से आप दुश्मन पर विजय प्राप्त कर सकते है। आपके रोग आदि ख़त्म हो जायेगे।
आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कैसे करे?
सुबह नित्यकर्म से निवृत्त होकर भगववान सूर्यदेव के फोटो या मंदिर में आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करे, उसके बाद भगवान सूर्य की पूजा करे और सूर्यदेव को जल अर्पण करे। अगर किसी विद्वान से इसके बारे में जानकारी ले तो यह और भी बढ़िया होगा।
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सिर्फ पढ़ने के लिये
भगवान का अनन्य भाव से स्मरण करना – भगवान कहते है – हे अर्जुन ! जो अनन्य भाव से निरंतर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ रहता हूँ क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।
उपरोक्त शब्दों का तात्पर्य – यहां उन निष्काम भक्तो द्वारा प्राप्तव्य अंतिम गंतव्य का वर्णन है जो भक्ति योग के द्वारा भगवान के सेवा करते है इसके पहले चार प्रकार के भक्तो का वर्णन हुआ है। 1- आर्त 2- अथार्थी 3- जिज्ञासु तथा ज्ञानी।
मुक्ति की विभिन्न विधियों का भी वर्णन हुआ है – कर्म योग, ज्ञान योग, हठ योग, इन पद्धतियों के नियमो में कुछ न कुछ भक्ति मिली रहती है। लेकिन यहां शुद्ध भक्ति योग का वर्णन है जिसमे ज्ञान, कर्म या हठ का मिश्रण नहीं होता है।
शुद्ध भक्त सदैव कृष्ण के रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है। कृष्ण के अनेक अनेक स्वांश तथा अवतार है, यथा राम व नृसिंह जिनमे से भक्त किसी एक रूप को चुनकर उसकी प्रेमाभक्ति में मन को स्थिर कर सकता है।
भक्ति योग में भक्त कृष्ण के अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं करता है जैसा कि अनन्यचेताः शब्द से सूचित होता है। शुद्ध भक्त न तो स्वर्गलोक जाना चाहता है न ब्रह्मज्योति से तादात्म्य या मोक्ष या भवबंधन से मुक्ति ही चाहता है।
शुद्ध भक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता है। चैतन्य चरितामृत में शुद्ध भक्त को निष्काम कहा गया है। उसे पूर्ण शांति का लाभ होता है, उन्हें नहीं जो स्वार्थ में लगे रहते है।
एक ओर जहां ज्ञान योगी, कर्म योगी, हठ योगी का अपना-अपना स्वार्थ रहता है वही पूर्ण भक्त में भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं होती है। अतः भगवान कहते है जो एकनिष्ट भाव से उनकी भक्ति में लगा रहता है। उसे वह (भगवान) सरलता से प्राप्त होते है।
भक्ति योग अत्यंत सरल शुद्ध तथा सुगम है। इसका शुभारंभ हरे कृष्ण जप से किया जाता है। ऐसे भक्त को उन अनेक समस्याओ का सामना नहीं करना पड़ता है जो अन्य योग के अभ्यासकर्ताओं को झेलनी पड़ती है।
भगवान सभी पर कृपालु है किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करते है, वे उनके ऊपर विशेष रूप से कृपालु रहते है (कठोपनिषद में 1, 2, 23) में कहा गया है, जिसने भगवान की शरण ले ली है और जो उनकी भक्ति में लगा हुआ है वही भगवान को यथा रूप में समझ सकता है तथा गीता में भी (10, 10) कहा गया है ददामि बुद्धि योग तम – ऐसे भक्त को भगवान पर्याप्त बुद्धि प्रदान करते है जिससे वह उन्हें भगवद्धाम में प्राप्त कर सके।
जैसा कि सततम तथा नित्यशः शब्दों से सूचित होता है। शुद्ध भक्त निरंतर कृष्ण का ही स्मरण करता है और उन्ही का ध्यान करता है। ये शुद्ध भक्त के गुण है जिनके लिए भगवान सहज सुलभ है।
गीता समस्त योग पद्धतियों में भक्ति योग की ही संस्तुति करती है। सामान्यतया भक्ति योगी पांच प्रकार से भक्ति योग में लगे रहते है। 1- शांत भक्त – जो उदासीन रहकर भक्ति में युक्त होते है।
2- दास्य भक्त – जो दास के रूप में भक्ति में युक्त होते है। 3- सखा भक्त – जो सखा रूप भक्ति में युक्त होते है। 4- वात्सल्य भक्त- जो माता पिता की भक्ति में युक्त होते है। 5- माधुर्य भक्त – जो परमेश्वर के साथ दाम्पत्य प्रेमी की भांति भक्ति में युक्त होते है। शुद्ध भक्त इनमे से किसी में भी परमेश्वर की प्रेमाभक्ति में युक्त होता है और भगवान को कभी नहीं भूल पाता।
जिससे भगवान उसे सरलता से प्राप्त हो जाते है जिस प्रकार शुद्ध भक्त क्षणभर के लिए भी भगवान को नहीं भूलता उसी प्रकार भगवान भी अपने शुद्ध भक्त को क्षण मात्र के लिए भी नहीं भुलाते है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
शुद्ध भक्त का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह देश काल का विचार किए बिना अनन्य भाव से ही कृष्ण का चिंतन करता रहता है। उसको किसी तरह का व्यवधान नहीं होना चाहिए।
उसे कही भी किसी समय भी अपना सेवा कार्य करने में समर्थ होना चाहिए। कुछ लोगो का कहना है कि भक्तो को वृन्दावन जैसे पवित्र स्थान पर रहना चाहिए जहां भगवान रह चुके हो, किन्तु शुद्ध भक्त कही भी रहकर भी वृन्दावन जैसे पवित्र वातावरण उत्पन्न कर सकता है। (अपनी भक्ति से) श्री अद्वैत ने चैतन्य महाप्रभु से कहा था “आप जहां भी है, हे प्रभु ! वही वृन्दावन है।”
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